गांधी के जन्म तिथि के मौके पर रामचंद्र गुहा ने एक साक्षात्कार में कहा कि वह देश के राजनितिक स्थिति से बहुत निराश नहीं हैं. वह अलग अलग जगह हो रहे आन्दोलनों को लेकर आशावान हैं और देश की परिस्थिति बदलने की राह उसमे देखते हैं. उन्होंने मेधा पाटकर और ADR (association for democratic reforms) के कामों की चर्चा की और इस तरह के आंदोलनों पर अपनी आस्था व्यक्त की. हिन्दुस्तान की ठीक ठाक समझ रखने वाले इतिहासकार ने जब यह कहा तो मुझे लगा कि मेरे मन में जो बातें थीं उन्होंने कह डाली. मेधा पाटकर और उनके बहादुर साथियों के नेतृत्व में नर्मदा बचाओ आन्दोलन के संघर्ष को देखें या फिर मजदूर किसान शक्ति संगठन के अरुणा राय, निखिल डे और शंकर सिंह के नेत्रित्व में चले पारदर्शिता और जवाबदेही का आन्दोलन को लें या कुडाकुलम के संघर्ष को लें या फिर अर्थशास्त्री जाँ द्रेज़ द्वारा लगातार गरीबों के पक्ष में चल रहे काम को लें तो सचमुच यह एहसास होता है कि गाँधी की विरासत देश में फैले छोटे-बड़े आंदोलनों में रच बस रही रही है. ऐसे सैंकड़ों व्यक्ती और समूह हमारे देश में मौजूद हैं जो अपने स्तर पर बहुत महत्वपूर्ण लड़ाई बड़े अदम्य सहस के साथ अहिंसक तरीके से लड़ रहे हैं. यह लड़ाई और इनकी जीत ही लाकतंत्र की जीत है. अपने काम के दौरान मैंने बिहार में कुछ गाँव स्तर की संघर्षों और उनकी जीत को देखा है और आज जब गांधी की विरासत की बात हो रही है तो ऐसा लगा कि इनके बारे में लिखना चाहिए .
कटिहार के मनसाही प्रखंड में एक टोली बनी है कुछ साहसी लोगों की जिनमे प्रमुख है दीपनारायण पासवान, अरुण यादव, जितेन्द्र पासवान और नीला देवी. सब बहुत कम पढ़े लिखे भूमिहीन मजदूर हैं. अरुण को छोड़कर सभी मनसाही प्रखंड के चित्तोरिया पंचायत में रहते है. अरुण मोहनपुर पंचायत में रहते हैं. तीन साल पहले जन जागरण शक्ति संगठन के साथी “काम मांगो पदयात्रा” लेकर उनके पंचायत में आये थे. एक रात टोली अरुण के घर के पास पंचायत के सामुदायिक भवन में रुकी और एक रात चित्तोरिया में. टोली मीटिंग में खाना लोगो से मांगती और फिर एक एक करके उन्हें लोग अपने घर ले जाते. टोली के साथ बतियाते हुए अरुण, दीपनारायण और जीतेन्द्र को लगा कि कुछ हो सकता है. उन्होंने काम मांगने से शुरुआत की. ब्लॉक में आवेदन जमा देने गए तो लिया नहीं गया. बदतमीजी की गयी और लौटना पड़ा. अधिकारियों का व्यवहार कोई अश्चार्जनक नहीं था पर कड़े तेवर के जीतेन्द्र पासवान और बहुत धीमा और मीठा बोलने वाले अरुण मानने वाले कहां थे ?
दीपनारायण जी, टोली में सबसे बड़े उम्र के साथी , ने जन जागरण की टीम के साथ रणनीती बनाई. तैयारी शुरू की गयी. नीला देवी ने महिलाओं तो जोड़ना शुरू किया. पूरी टीम ने मिलकर मिलकर निर्णय नीला की प्रदर्शन करेंगे. यात्रा में बुलंद हुआ नारा “हम हमारा हक मांगते नहीं किसी से भीख मांगते” अभी भी दिमाग में दौड़ रहा था. ब्लॉक का घेराव हुआ, जबरदस्त. अधिकारी ना–ना प्रकार के बहाने बनाते पर उनकी चलने नहीं दी गयी. कर्मचारियों को ब्लॉक से निकल जाने का मौका नहीं दिया गया. काफी उथल-पुथल के बाद विवश होकर शाम तक आवेदन की रसीद देना पड़ा. चित्तोरिया में कुछ दिनों बाद काम भी मिला लेकिन ऐसी जगह जहाँ पहुंचना काफी कठिन था- टोला से 13 किलोमीटर दूर नदी के किनारे जहाँ आने जाने का कोई साधन नहीं. पुरुष तो साइकल से निकल जा सकते थे पर महिलायें को तो चल के ही जाना पड़ता.
ऐसा नहीं था कि लोग संगठित हो चुके थे. अभी तो शुरुआत थी. ऐसे में मनरेगा का काम, जिसका पैसा कब मिलेगा पता नहीं, करने के लिए 26 किलोमीटर चलना एक कठिन परीक्षा थी. बैठकें हुयी और नीला के नेत्रित्व में चित्तोरिया की महिलाओं ने काम लेने की ठानी. इस काम ने लोगो के हौसले को बुलंद किया सौ दो सो मजदूरों ने जब एक साथ इतनी दूरियां तय कि तो उनका संगठित होने पर विश्वास भी बढ़ता गया. इसके बाद लोगों को चित्तोरिया में ही बाँध मरम्मती का काम मिला. 200 मजदूरों ने वहां भी जम के काम किया और यह एक “मॉडल” काम की जगह बनी जहाँ पानी, छाया, बच्चों के लिए पालना घर इत्यादी का भी इंतजाम संभव हो पाया.
उसके बाद पंचायत में चुनाव हुए. दीपनारायण जी मजदूरों के प्रत्याशी बन कर उभरे. चित्तोरिया जैसे पंचायत में जो स्थानीय विधायक का भी घर है और आरक्षित सीट नहीं है वहां एक दलित का मजबूती के साथ खड़ा होना वहां एक वर्ग के लिए सीधा हमला था. फोन पर धमकियाँ तो कभी प्रलोभन दिया जाने लगा. दीपनारायण जी ने चुनाव में एलान किया कि वह सिर्फ 5000 खर्च करेंगे. पांच रूपये का कूपन बना चंदा इकठ्ठा करने के लिए. पूरा माहौल ऐसा बना की लोग अचंभित थे. चुनाव हुआ, सारे प्रपंच रचे गए ताकि दीपनारायण जी हारे. चुनाव के एक रात पहले दीपनारायण जी की एक महिला समर्थक को घर से जबरन उठा लिया गया और फिर छोड़ दिया गया. जन जागरण के साथी जो मदद के लिए एक दिन पहले आये थे उन्हें छिपना पड़ा. दबंग प्रत्याशी उन्हें ढूढ रहे थे. कोई खेत में छुपा तो कोई किसी कोने में. एक रात पहले शराब, पैसा, मांस, साड़ी सभी कुछ बांटा गया खासकर दलित और आदिवासी मोहल्ले में. कई लोगों के यहाँ जबरदस्ती सामान रखा गया. पूरा माहौल भयक्रांत बनाया गया. दो दिन दीपनारायण जी पर चुनाव अधिकारियों ने रैली निकालने के लिए “FIR” भी दर्ज कराया.
चुनाव हुए , नतीजा निकला तो दीपनारायण जी करीब 60 वोट से हार गए. रंजीत पासवान जो संगठन की ओर से इस प्रक्रियाओं से जुड़े हुए थे, ने पहले से ही पैसा बचा कर दीपनारायण जी के लिए एक नया कुर्ता खरीदा था. दीपनारायण जी, जो हमेशा फटा और मैला कुरता पहनते थे, को रंजीत ने सबके सामने कुरता यह कहते हुए पहनाया कि हमारी लड़ाई की जीत हुई है. प्रक्रिया की जीत हुई है !
आज जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, जब चुनाव को हुए दो साल से अधिक हो गया है, तो चित्तोरिया और मोहनपुर के मजदूर अपने पंचायत में राशन व्यवस्था के खिलाफ मीटिंग कर रहे हैं कि उन्हें सरकारी रेट पर ही राशन दिया जाए और पूरा राशन दिया जाये. कुछ दिन पहले ही उन्होंने तीन अलग अलग टोलों में दिन भर का धरना कर प्रसाशन को मजबूर कर दिया कि उन्हें उनका हक दिया जाए.
…. जारी अगले अंक में …
My good wishes are with you in your great struggle!!!
आज भी दीपनारायण जी के उस चुनावी अभियान के बारे में सोचती हूँ तो झुरझुरी आ जाती है… highway के इतना नज़दीक और रात में एक बजे जब साथी को घर से उठाया गया तो कितने असहाय थे हम सब.
कितने गांधी और कितनी शहादत माँगता है यह बदलाव? एक युवा संगठन से जुड़े होने के फायदे ये हैं की हमारे इरादे बुलंद हैं, प्रक्रिया की जीत से उत्साहित रहते हैं… आगे बढ़ने के लिए तत्पर…